Tuesday, February 04, 2014

फ्रेंची में छोटे चूहे….!



फ्रेंची में छोटे चूहे….!
जरा सोचिए छोटे चूहे फ्रेंची पहन के घूमेंगे तो कैसे लगेंगे। सल्लू की फिल्म जय हो देख कर ऐसा ही लगा। बड़ा हल्ला मचा रखा था। बिजनेस चाहे जैसा करे लेकिन फिल्म ने भेजा फ्राई कर दिया । रजनीकांत सर जब और बूढ़े होने होकर थोड़ा और येड़ा हो जाएंगे तो वो जैसे रोल करेंगे वैसा सल्लू ने इस फिल्म में किया है। केजरीवाल के बाद पहली बार आटो वालों को इस फिल्म में सम्मान मिला जब आटो को द्वितीय विश्वयुद्ध के जमाने के एक टैंक ने एस्कॉर्ट किया। सीमेंट वालों को भी अब अपने विज्ञापन में हाथी की जगह सलमान को रख लेना चाहिए। वो अपनी खोपड़ी से कुछ फोड़ पाएं या ना फोड़ पाएं लेकिन खोपड़ी सलामत रहेगी।
फिल्म देख्र कर लगा कि साला सेंसर बोर्ड वाला भी सटक गया है। लगता है वहां भी कच्छा गिरोह  का बोलबाला है। दुनिया कहां से कहांं पहुंच गई लेकिन ये लोग चड्ढïी और चूहे में उलझे हुए हैं। तभी तो छोटे चूहे वाला लौंडा पूरी फिल्म में मम्मी जैसी लडक़ी की कच्छी का रंग बताता घूम रहा है। हीरोइन छोटे चूहों का जिस तरह से मजाक बना रही है, डर है की चीन में यह फिल्म बैन ना हो जाए क्योंकि जो चीज छोटी होती है पता नहीं क्यों लोग उसे चीन से जोड़ देते हैं। जैसे चीनिया बादाम और चीनिया केला और अब कहीं छोटे चूहे को भी चीन  से ना जोड़ दिया जाए। यहां फिल्म समीक्षा नहीं हो रही, मुद्दा कच्छी का है। चूहे वाले लौंडे की उम्र को हमने पटरे वाली जांघिया पहन कर बिताया । ढीली ढाली और इतनी हवादार कि कभी कभी भीतर कुछ ना पहनने का अहसास होता था। पता ही नहीं चला कब पटरे वाली जांघिया विंटेज कारों की तरह धरोहर बन गई। उसकी जगह स्लीक, स्मार्ट कच्छियों ने ले ली। सच बताऊं शुरू में छोटी वाली कच्छी पहनने में शर्म महसूस होती थी। लगता था कि इसे तो लड़कियां पहनती हेंैं। किसी ने बताया, अबे ये तो फ्रेंची हैै, लड़कियां जो पहनती उसे पैंटी कहते हैं।
लगता है छोटी चड्ढी सबसे पहले फ्रेंच लोग पहनते होंगे तभी इसका नाम फ्रेंची पड़ा। अब से मैं फ्रेंच भाइयों को छोटे चूहे वाला कहूंगा। गनीमत है चीनी लोगों ने छोटी कच्छी की शुरुआत नही की नहीं तो फ्रेंची की नाम चींची या चींछी जैसा ही कुछ होता। संभव है सबसे पहले फ्रांस के छोटे चूहों ने पटरे वाली जांघिया को कुतर कुतर कर अपने नाप का बनाया हो और बाद में फं्रासीसियों ने उसे पहनना शुरू कर दिया और उनके नाम पर पेटेंट हो गई कच्छी। अब बेचारे चाइनीज छोटे चूहे कोई भी कच्छी पहने वो फ्रेंची ही कहलाएगी ।

Thursday, April 21, 2011

जरा फासले से मिला करो...

क्या बड़े शहरों में लोग इतने अकेले हो जाते हैं? नोएडा के सेक्टर 59 के एक अपार्टमेंट में दो बहनों अनुराधा और सोनाली ने आखिर सात महीने से अपने को क्यों कैद कर रखा था? इनमें एक चार्टर्ड एकाउंटेंट थी और दूसरी टेक्सटाइल डिजायनर. कुछ सालों से उनके पास जॉब नहीं थी लेकिन इतनी भी कड़की नहीं थी कि भूखों मरने की नौबत आ जाए. फिर उन्होंने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया? हालत इतनी खराब हो गई कि बुधवार को अनुराधा की मौत हो गई और सोनाली की हालत भी खराब है. इसका रेडीमेड उत्तर है-दोनों डीप डिप्रेशन में थीं. लेकिन जवाब इतना आसान नहीं है. एक कर्नल की पढ़ी-लिखी बेटियां, जिनका एक सगा भाई और दूसरे रिश्तेदार भी हों वो क्यों नोएडा की व्यस्त लोकैलिटी के एक फ्लैट में अपने को कैद कर लेती हैं और पूरे सात महीने इसकी खबर किसी को नहीं होती. ये पॉश सी लगने वाली कौन सी जंगली बस्ती हैं जिसके उलझे हुए रास्तों पर कब कोई अकेला दम तोड़ दे, पता ही नहीं चलता. शहर जैसे-जैसे बड़ा और मॉर्डन होने लगता है तो क्या फैमिली, लोकैलिटी और शहर को जोडऩे वाला इमोशनल फाइबर कमजोर पडऩे लगते हैं? बशीर बद्र की ये लाइंस आज बार- बार याद आ रही हैं... कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो... लेकिन क्या शहरों में ये फासले इतने बड़े हो जाते हैं कि अपनों के एग्जिस्टेंस को ही भुला दिया जाता है.? यहां सवाल छोटे या बड़े शहर का नहीं है, सवाल हमारी परवरिश, संस्कारों और पर्सनॉलिटी का है. सवाल इसका है कि हमारी इमोशनल और सोशल बॉन्ड्स कितनी स्ट्रॉंग हैं. स्कूलों में तो मॉरल वैल्यूज के बारे में पढ़ाया जाता है लेकिन हम इमोशनली कितने स्ट्रांग हैं ये तो हम परिवार में ही सीखते हैं. अनुराधा और सोनाली अपनी इस कंडीशन के लिए खुद जिम्मेदार हैं तो उनका भाई, रिश्तेदार और पड़ोसी भी कम जिम्मेदार नहीं. ये सबको सोचना होगा कि हमारे इर्दगिर्द के फासले इतने बड़े ना हों जाएं कि इंसानों की बस्ती में सब अजनबी ही नजर आएं.

Friday, June 18, 2010

ब्लॉगिंग का मतलब बेलगाम होना नहीं

एक कहानी पढ़ी थी ‘रूल्स आफ द रोड’. इस कहानी में एक शख्स सडक़ पर छड़ी घुमाता जा रहा था. ठीक पीछे चल रहे दूसरे शख्स ने जब विरोध किया तो छड़ी घुमाने वाले ने कहा कि वो कुछ भी करने को स्वतंत्र है. पीछे चलने वाले ने कहा, याद रखो तुम्हारी आजादी वहीं खत्म हो जाती है जहां से मेरी शुरू होती है. यानी आजादी का मतलब दूसरों की आजादी में दखल नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में कुछ ऐसा ही फैसला दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी जज को ब्लॉग और अखबारों में किसी के बारे में असंयमित टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है. जज ही क्यों, यह बात तो सब पर लागू होती है. ब्लॉगिंग के संदर्भ में ये फैसला और भी रेलेवेंट है. इंटरनेट का विस्तार जितनी तेजी से हुआ है उतनी ही तेजी से ब्लॉगिंग पॉपुलर हुई है. पहले ये माना जाता था कि अगर आपका कोई ई मेल आईडी नहीं है तो आप समय की रफ्तार से नहीं चल पा रहे हैं. अब ये माना जाता है कि अगर आप ब्लॉगर नही हैं तो आप पुराने जमाने के हैं. ब्लॉग की सफलता का कारण क्या है? दरअसल ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है. लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब निरंकुशता नहीं है. ब्लॉगर्स को इस बात का ध्यान रखना होगा कि उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहीं दूसरों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप तो नहीं है. अच्छे कंटेंट वाले ढेर सारे ब्लॉग हैं तो ऐसे ब्लॉग और ब्लागर्स की भी भरमार है जो व्यक्तिगत आक्षेप, घटिया, अशोभनीय और अनैतिक टिप्पणियों से भरे हुए हैं. कुछ ब्लॉग तो राग-द्ववेष का अखाड़ा बन कर रह गए हैं. ऐसे में जरूरी हो गया है कि ब्लॉग कंटेंट के लिए भी आचार संहिता बने और उसका सख्ती से पालन हो. ब्लॉ पर किसी को भी गरियानी के बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ही होगा वरना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अराजकता को जन्म देगी.

Friday, April 09, 2010

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!

आजकल एक शादी को लेकर शोर मचा हुआ है. यानी बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना. लेकिन जब शादी किसी सेलेब्रिटी की हो तो चर्चा होगी ही. लेकिन जब उसे लेकर कोई कांट्रोवर्सी पैदा हो जाए कोहराम मच जाता है. सानिया मिर्जा इंडिया की वल्र्ड क्लास टेनिस स्टार हैं. कुछ दिन पहले एक बड़ी खबर आई जब सानिया और उनके मंगेतर सोहराब मिर्जा का रिश्ता टूट गया. फिर उससे बड़ी खबर आई कि सानिया पाकिस्तान के क्रिकेट स्टार शोएब मलिक से शादी करने जा रही हैं. इसके बाद उससे भी बड़ी खबर आई जब हैदराबाद की ही आयशा ने दावा कि कि शोएब उनका शौहर है और उनका तलाक नही हुआ है. लेकिन शोएब के इससे इनकार करने पर हंगामा खड़ा हो गया. सानिया-शोएब की शादी एक बड़ा इश्यू बन गई. पब्लिक भी इसमें खूब रुचि लेने लगी. मीडिया को फिर ऐसा मसाला मिल गया जिससे उसकी टीआरपी का संकट कुछ दिनों के लिए दूर हो गया है. अब खबर आई है कि शोएब ने मान लिया है कि आयशा से उनकी शादी हुई थी और उसने तलाक दे दिया है. इस हाई प्रोफाइल शादी को लेकर रोज बे्रकिंग न्यूज आ रहीं हैं. ‘एथिक्स’ को लेकर बहस छिड़ी हुई है. कुछ संगठनों ने तो इसे देश का अपमान तक कह डाला. सबसे बड़ा सवाल है कि शादी के निहायत निजी फैसले पर इस तरह का बवाल कहा तक सही है? लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि सानिया मिर्जा का सेलेब्रिटी स्टेटस उन्हें ‘एथिक्स’ के दायरे में भी बांधता है. सानिया टेनिस में देश का चेहरा हैं. उनसे देशवासियों की भावनाएं जुड़ी हैं. भले ही इस कांट्रोवर्सी में सानिया को कोई दोष ना हो लेकिन कांट्रोवर्शियल पर्सन से उनका जुड़ाव देशवासियों को हर्ट तो कर ही रहा है. शोएब मलिक पर मैच फिक्सिंग का भी आरोप लग चुका है और अब शादी पर उनका झूठ सामने आने से उनकी छवि को और खराब हुई है. ऐसे में शोएब भारतीय आवाम की आंख की किरकिरी बने हुए हैं तो इसमें गलत क्या है.

Sunday, November 15, 2009

कोई टुन्न (टल्ली) कोई सेलफोन पर

ड्रंकेन ड्राइविंग ने फिर चार लोगों की जान ले ली. इस बार हादसा नोएडा में हुआ. आप लकी हैं कि खबर आपके शहर से नहीं आई. लेकिन खबर कभी भी आ सकती कि सेलफोन पर बात करते हुए किसी ने राहगीर पर कार चढ़ा दी या नशे में धुत ड्राइवर ने फुठपाथ पर सो रहे लोगों को हमेशा के लिए सुला दिया. मोटर वेहिकल एक्ट की धराएं सख्त होती जा रही हैं फिर भी हादसे कम होने के बजाय बढ़ रहे हैं. हो सकता है आपके शहर में कभी-कभी ट्रैफिक वीक या मंथ मनाया जाता हो. लेकिन इसमें सारा जोर अवेयरनेस पर कम, फाइन ठोंकने पर ज्यादा रहता है. ऐसी खबरें शायद ही आती हैं कि ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट में फेल होने पर इतने लोगों पर फाइन किया गया या उनके डीएल जब्त किए गए. सड़क किनारे खड़े हो थोड़ी देर वॉच कीजिए, ड्राइव करते और आराम से सेलफोन पर बात करते कई लोग दिख जाएंगे. आप ट्रैफिक रूल्स फालो करते हैं लेकिन ये आपकी सेफ्टी की गॉरन्टी नहीं. हो सकता है कि सामने से आने वाला ड्रंक हो या सेल पर बात में मशगूल हो. शाम के बाद तो खतरा और बढ़ जाता है. अमेरिका, यूरोप में तो और भी सख्ती है. कुछ दिनों पहले कैलिफोर्निया के गर्वनर अॅर्नाल्ड श्वाजऱ्नेगर की वाइफ को ड्राइविंग के समय सेल फोन पर बात करने पर फाइन झेलना पड़ा था. इसी तरह फुटबाल स्टार बेकहम को भी ड्राइविंग के समय सेल फोन से खेलते लासएंजेल्स पुलिस ने धर लिया था. लेकिन इंडिया में तो छोटे-बड़े सब ट्रैफिक रूल्स तोड़ते हैं और कभी जुगाड़ से तो कभी धौंस देकर बच जाते हैं. दोष ट्रैफिक पुलिस को क्यों देते हैं. नियम तोड़ कर वसूली का मौका तो हम ही देते हैं. आप सही रास्ते पर चलिए, पुलिस भी रास्ते पर आ जाएगी.

Sunday, September 13, 2009

बदलाव वक्त की जरूरत

एजूकेशन सिस्टम के बारे में पहले बुरी खबर. लोअर और हायर दोनों लेवल पर हमारे एजूकेशन सिस्टम में गिरावट और दोहरे मापदंड की शिकायतें बढ़ती जा रहीं थीं. इनसे रिलेटेड डिस्टर्बिंग न्यूज इधर कुछ ज्यादा ही आ रही हैंं. एक खबर आई कि गुडग़ांव में बारहवीें मेंं 92 परसेंट माक्र्स पाने वाली एक स्टूडेंट ने इस लिए बिल्डंग से छलांग लगा दी क्योंकि उसका एडमिशन दिल्ली के एक प्रतिष्ठत कालेज में नहीं हो सका था. फिर पंजाब के संगरूर से खबर आईआई कि बोर्ड एग्जाम में फेल होने पर एक छात्रा ने जान देदी. फिर उसकी छोटी बहन के बड़ी बहन के गम में जान दे दी. कालेजों की बढ़ती संख्या के साथ ही मनमानी कैपिटेशन फीस और बिना प्रॉपर इंफ्रास्ट्रकचर के कालेज और इंस्टीट्यूट्स चलाने की शिकायतें भी बढ़ती जा रही थी.ं अब अच्छी खबर. जब किसी सिस्टम में फाल्ट बहुत बढ़ जाता है तो उसकी रिपेयरिंग और ओवरहालिंग की जरूरत पड़ती है. इसी लिए सेंट्रल ह्यूमन रिसोर्सेज डेवलपमेंट मिनिस्ट्री ने यशपाल समिति की सिफारिशों को तुरंत लागू करने का फैसला किया है. कैब (द सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड आफ एजूकेशन) ने इन रिफा र्स को हरी झंडी भी दे दी है. सीबीएसई ने तो गे्रडिंग सिस्टम और दसवी में आप्शनल बोर्ड एग्जाम की व्यवस्था को इसी सेशन से लागू करेन का फैसला किया है. स्टेट्स ने भी इन पर आमतौर पर सहमति जताई है और उम्मीद है कि वे भी जल्द ही नई व्यवस्था को अपना लेंगे. कैब ने सभी बोर्ड के लिए यूनिफार्म साइंस और मैथमेटिक्स सिलेबस लागू करने पर भी सहमति जताई है. इससे बोर्ड लेवल पर एजूकेशन के समान स्तर को मेंटेन करने में मदद मिलेगी. एचआरडी मिनिस्ट्री ने यह भी घोषणा की है कि वाइस चांसलर्स का सेलेक्शन अब कैब के 30-40 एक्स्पट्र्स का पैनल करेगा. वे स्टेट गवर्नमेंट को वीसी के नाम रिकमेंड करेंगे. इससे हायर एजूकेशन में पॉलिटिकल इंटरफियरेंस कम करने और अधिक ट्रांसपरेंसी लाने में मदद मिलेगी. ग्रेडिंग सिस्टम का आमतौर पर लोगों ने स्वागत किया है लेकिन लोगों का कहना है कि मेधावी स्टूडेंट के करियर पर फर्क पड़ेगा. लेकिन एक्स्पट्र्स का मानना है कि होम एग्जाम और ग्रडिंग सिस्टम से स्टूडेंट्स को अनावश्यक प्रेशर और तनाव से मुक्ति मिलेगी. अब एक-दो नंबर के लिए मेधावी छात्र डिप्रेस्ड नही ंहोंगे.

Friday, August 07, 2009

बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय

तेजी से बदलती सोसायटी के अनुसार फमिली का साइज और स्ट्रक्चर भी बदलता रहता है. ज्वाइंट फैमिली और ज्यादा सदस्यों वाले परिवार की जगह अब न्यक्लियर फैमिली ने ले लिया है. कम से कम शहरों में तो यही स्थिति है. पिछले दिनों फैमिली डे मनाया गया. ज्वाइंट और स्मॉल दोनों तरह की फैमिलीज से बात करने पर ये बाते सामने आईं कि दोनों तरह के परिवारों के एडवांटेंज और डिसएडवांटेज हैं. पचास मेंबर्स वाले परिवार भी सुकून से रह रहे हैं और तीन-चार मेंबर्स वाली फैमिलीज भी सुख-चैन खो बैठती हैं. ये तो सदस्यों पर डिपेंड करता है कि वे परिवार को हेवेन बनाए या हेल. हर सख्श के सक्सेस के पीछे उसकी फैमिली का भी बड़ा कंट्रीब्यूशन होता है. ये कंट्रीब्यूशन हर स्टेज पर होता है. बचपन से लेकर ओल्ड एज तक. इस कंट्रीब्यूशन में महिलाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है. कभी मां के रूप में तो कभी पत्नी के रूप में दरअसल फैमिली ही वो स्कूल है जहां संस्कारों की नीव पड़ती है. परिवारों में हम जो कुछ भी सीखते हैं उसे अगली जेनरेशन को ट्रांसफर करते हैं. कहते हैं ना 'ऐज यू सो, सो विल यू रीपÓ यानी जैसा रोपोगे वैसा ही काटोगे. बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय. यही बात फैमिली पर लागू होती है. अगर फैमिली में कुछ गड़बड़ है तो उसका दोष सिर्फ हसबैंड या वाइफ पर नहीं मढ़ा जा सकता. दोनों बराबर के जिम्मेदार होते हैं. अक्सर तिल को ताड़ बनाने में हमारा ईगो आग में घी का काम करता है और छोटे छोटे मामले फैमिली कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं.

Saturday, May 23, 2009

ये इश्क नहीं आसां

इश्क-विश्क, प्यार-व्यार आपको भले ना हुआ हो लेकिन स्टूडेंट लाइफ में लव और लव अफेयर पर डिस्कशन के बिना करियर पूरा कर लिया तो समझिए आपकी एजूकेशन में कहीं ना कही गंभीर फाल्ट है. टीन एज होती ही ऐसी है कि हर दूसरी लड़की में गर्लफ्रेंड बनने की संभावना नजर आती है. दिल की रोड पर लव का ट्रैफिक सरपट भागता है भले ही वन वे हो. कुछ ऐसे होते हैं जो खुद तो गर्लफ्रेंड बनाने में सफल नहीं हो पाते लेकिन लव अफेयर्स पर दूसरों को सलाह देने में महारत हासिल होती है. जैसे किसी को खुद बाइक चलानी ना आती हो पर वह दूसरों को सेफ ड्राइविंग की सलाह देने पर उतारू हो जाए. मेडिकल कालेज हो या इंजीनियरिंग कालेज या फिर किसी यूनिवर्सिटी, रीयल कैंपस लाइफ तो हॉस्टल में दिखाई देती है. यूनिटी इन डायवर्सिटी, गजब का सोशलिज्म. हास्टल के हर कमरे में दिखती है अलग तरह की क्रिएटिविटी. एक से एक चौकाने वाले स्लोगन और पोस्टर्स. जरूरी नहीं कि जो लिखा हो उससे उस रूम का इनमेट इत्तेफाक रखता हो. बस अच्छा लगा तो लगा दिया. ऐसे ही एक सज्जन को सलमा हयाक, ब्रिटनी स्पीयर्स और मल्लिका शेरावत के बड़े पोस्टर्स मुफ्त में मिल गए तो भाई ने रूम की तीनों दीवारों पर चस्पा कर दिए. हां, आलमारी पर एक बित्ते का स्टिकर भी चिपका था जिस पर गायत्री मंत्र लिखा था. लेकिन कुछ दिनों बाद अचानक तीनों सुंदरियों की जगह सारनाथ, संगम और हिमालय के पोस्टर लगे दिखे. पत चला कि बीएचयू के प्रोफेसर साहब अपनी बेटी के रिश्ते के लिए भाई साहब को देखने आए थे. लौट कर उन्होंने मीडिएटर को खरी खोटी सुनाई कि कहां भेज दिया था, लड़के का चाल-चलन ठीक नहीं है. इसी तरह हॉस्टल रूम्स की दीवारों पर चस्पा कोटेशंस अपनी अलग कहानी कहते हैं. इनको देख कर लगता है कि किसी कमरे में कामरेड, किसी कमरे में थियेटर आर्टिस्ट, कहीं फिलासफर तो कहीं संघ का प्रचारक रह रहे हैं. लेकिन इन सब के बीच डिस्कशन का कॉमन टापिक होता है- इश्क का चक्कर यानी लव अफेयर. दोस्तों की गोल में इश्क पर चर्चा तो बहुत होती थी लेकिन सैद्धांतिक रूप से ही जो इसे व्यवहार में लाने लगता था उसे गोल से बाहर कर दिया जाता था. अगर वो फिर भी नहीं मानता तो कैंपस में उसकी गर्लफ्रेंड के सामने दोस्त लोग कुछ ऐसी हरकत कर देते कि वो लड़की उसे भी पक्का लफंगा समझ बात करना बंद कर देती और वो दोस्त फिर कुढ़ते हुए हमारी गोल में शामिल हो जाता.

Thursday, April 30, 2009

लू में चुड़ैल

सांय-सांय करती लू में है लय, लू में है संगीत, लू में है एक अजीब सी रूमानियत. पता नहीं क्यों लोग लू से डरते हैं. जब छोटा था तो लू पूरे महीने चला करती थी. अब मुश्किल से 15 दिन भी नहीं चलती. पहले गर्मी की छ़ुट्टियों का मतलब होता महीने भर लू में मस्ती. लू भरी दोपहरी हमेशा से लुभाती थी. जब लू चले तो हम चलते थे सुनसान दोपहरी में किसी की बगिया से अमिया तोडऩे. क्या एक्साइटमेंट और थ्रिल था. नमक के साथ टिकोरा (अमिया, केरियां) खाने में जो मजा था वो पके दशहरी, लंगड़ा और मलदहिया में भी नही मिलता. लू कभी कभी लप्पड़ भी मारती थी. सीजन में कए दो-बार लू जरूर लगा करती थी. डाट पड़ती थी कि बहेल्ला (आवारा ) की तरह दोपहर भर घूमता रहता है लू तो लगेगी ही. फिर उपचार के लिए आम का पना मिलता था. इसके बाद दो-तीन दिन में सब सामान्य. फिर निकल पड़ते थे लू में. बड़े कहा करते थे कि लू की दुपहरिया में सुनसान बगिया में न जाया करो चुड़ैल या प्रेत भी होते हैं वहां. उसके कई किस्से सुनाए जाते थे कि फलनवां के बगीचे में जो पुराना पेड़ है उस पर रहती है चुड़ैल. वैसे हर गांव के किसी न किसी पेड़ पर प्रेत या चुड़ैल के आवास का प्र्रावधान होता है. चांदनी रात और पं्रचंड लू में ही ये लोग टहला करते हैं. ऐसा कहा जाता है लेकिन मुझे आजतक न पे्रत मिले न चुड़ैल. लू और भी कई कारणों से अच्छी लगती है. लू में मच्छर कम हो जाते हैं, लू में पसीना नहीं होता, घमौरियां नहीं होती, राते ठंडी होती हैं. लू में मटके के पानी की सोंधी महक अमृत का एहसास कराती है. लू में खरबूजा और तरबूज बहुत मीठा होता है. लू में कोहड़े (कद्दू) की सब्जी, कच्चे आम और पुदीने के चटनी के आगे सब आइटम फेल हैं. पर अब न जाने क्यूं लू कम चला करती है. अब सड़ी गर्मी ज्यादा पड़ा करती है. और कमबख्त चुड़ैल भी नहीं दिखती.

Thursday, April 23, 2009

डंडा, बांस, बत्ती और मिर्ची

डंडा, लकड़ी, बांस, बत्ती, अंगुली, मिर्ची, इनका प्रयोग अचानक बढ़ क्यों गया है। हरकोई डंडा, बांस और लकड़ी लिए घूम रहा है और जरा सी बात पर उसके सदुपयोग पर उतारू हो जाता. कोई डंडा कर रहा है, कोई बांस और किसी को तो लकड़ी करने में ही आनंद आ जाता है. और तो और लोग बात-बात में उंगली करते फिरते हैं. आम आदमी के पास आजकल ये कुछ ऐसे हथियार आ गए हैं जिनका निशाना ड्रोन की तरह अचूक है एक बार छोड़ दिए गए तो निशाने पर लगते जरूर हैं. जैसे आजकल अफगानिस्तान का सबसे निरीह क्षेत्र स्वात वैली है, जिसको देखो वही घुसा जाता है. उसी तरह में लोग डंडा, लकड़ी, बांस, को शरीर के सबसे निरीह क्षेत्रपर टारगेट किए रहते हैं. फर्क बस इतना है कि स्टील्थ बॉम्बर की तरह यह दिखाई नहीं देता, बस इसका असर महसूस किया जा सकता है. जब यदाकदा इनके निशाने चूक जाते हैं तो लोग 'बत्ती' का प्रयोग करते हैं. जब चाहा कह दिया 'बत्ती बना लो' . इसका असर लैंड माइन्स की तरह होता है और आपको इसके ऊपर से गुजराना ही होता है. टारगेट एरिया वही निरीह क्षेत्र.मिरची भी मुझे अचानक बहुत खूबसूरत लगने लगी है. पहले सिर्फ खाने में प्रयोग होता था अब गाने और लगाने में भी होता है. इस नाम के एफएम चैनल भी है. आप भले ही मिर्ची ना खाते हो लेकिन मिर्ची लगती जरूर है न लगे तो लोग कह कर लगवा देते हैं और टारगेट होता है वही निरीह क्षेत्र. लाल मिर्ची भी इतने किस्म की होती है यह अब पता चला. पहले कश्मीरी लाल मिर्च और पहाड़ी मिर्च ही सुनी थी, अब देग्गी मिर्च और तीखा लाल भी मैदान में है. इन मिर्चों का खरीदने की जरूरत नही है. आपकी जुबान ही काफी है. आपने कहा नहीं कि मिर्ची क्यों लग रही है? बस दूसरे पर असर तय है. निश्चिंत रहिए. मेरे पास इस समय ना तो बांस है ना लकड़ी और ना ही मिर्ची. मैं तो बस यूं ही लोगों की बात कर रहा था. वैसे एक राज की बात बताऊं कोई बांस या लकड़ी का प्रयोग करे तो आप 'बत्ती' वाला अस्त्र चला दीजिए, बिल्कुल 'पैट्रियाट' मिसाइल की तरह हमलावर पर असर करेगा.

Friday, March 20, 2009

भूत झाडऩा

मैं दारू नहीं पीता लेकिन ऐसी जमात के बीच काम करता हूं जहां ज्यादातर लोग शराब खूब पीते हैं. पार्टी शार्टी में जब साथी लोग पीकर टल्ली हो जाते हैं तो उनका भूत उतारने और घर तक पहुंचाने का जिम्मा मेरा होता है. कल भी एक पार्टी थी. उसमें कइयों का भूत झाडऩा पड़ा. टल्ली भी अलग अलग किस्म के हाते हैं. मेरे एक साथी दारू पीकर बॉस को जरूर गरियाते हैं और नशा उतरने पर उन्हे कुछ नहीं याद रहता. एक साथी पार्टी में पीने के बाद उल्टी जरूर करते हैं. और एक साथी ऐसे हैं जो इतना पी लेते हैं कि अगले दिन आफिस आने की हालते में नहीं रहते. ऐसा भी नहीं कि मैने शराब चखी नहीं है. जब हास्टल में था तो 'लाओ देखें जरा स्टाइल में कभी रम, कभी व्हिस्की, कभी स्काच तो कभी जिन का एक-आध पैग ले लेता था फिर पछताता था. इस लिए नहीं कि कोई पाप किया बल्कि इस लिए कि अगले दिन खोपड़ी जरूर भन्नाती रहती थी. एक बार न्यू इयर ईव पर मुझे थोड़ा जुकाम था. एक मित्र ने जबरन थोड़ी जिन पिला दी. पता नहीं क्या हुआ कि गले 15 दिन तक मैं कफ से जकड़ गया. मेरी सूंघने और सुनने की क्षमता जाती रही. लोग बोलते थे तो मैं कान के पास हाथ ले जाकर आंय-आंय करता था. दोस्तों ने खूब मजा लिया कि अबे ओझवा के कान में जिन घुस गया है. यह जिन एंटीबायटिक लेने से ही भागा. उस दिन से कान पकड़ लिया. ओझवा के कान में जिन

Sunday, February 01, 2009

लांग लिव राजाबाबू
राजाबाबू की तो डेथ हो गई. सुन कर विश्वास नही हुआ. कैसे हुई डेथ, किसने बताया? कोई कह रहा था. कौन? ठीक से याद नहीं. अरे वही राजा बाबू न जो ई टीवी में था. हां वही मथुरा वाला. सुन कर मन भारी हो गया. राजा बाबू कोई रॉयल फैमिली से नहीं था. राजाबाबू तो बस राजाबाबू था. हर कोई राजाबाबू थोड़े ही होता है. एक न्यूज चैनल का डिस्ट्रिक्ट करेस्पॉडेंट. लेकिन थोड़ा अलग था राजाबाबू. वही राजा बाबू जिसने हेड फोन लगा कर अपनी पी-टू-सी भेज दी थी. इसके पीछे उसका अपना तर्क था- कैसे पता चलता कि रिकार्डिंग सही हो रही या नहीं. वही राजा बाबू जिसको एक बार भू- माफिया ने धमकी दी तो वो तीन दिन की छुट्टी लेकर घर अलीगढ़ चला गया और अपना बीमा करा कर लौटा. माफिया से बोला अब मार भी दोगे तो घर वालों को पांच लाख मिलेंगे. घर वालों ने मेरी पढ़ाई पर इससे ज्यादा नहीं खर्च किया है. भू- माफिया ने हाथ जोड़ लिया, कहा अब कुछ भी लिखो कोई नाराजगी नहीं. आज से आप मेरे छोटे भाई. ऐसा राजाबाबू कैसे मर सकता है. एकबार डीएम ने उसे अपने कमरे के बाहर कुछ ज्यादा ही इंतजार करवा दिया. नाराज राजाबाबू एक चिट छोड़ गए-डीएम साहब मेरा वक्त भी कीमती है मुझे भी ऊपर से अफसरों की डाट पड़ती है. डीएम ने एक अफसर को भेज कर उसे वापस बुलाया. एकबार उसे फोन किया तो गलत नंबर लग गया. किसी महिला ने उठाया. मैंने कहा राजाबाबू से बात कराइए. महिला ने खिलखिलाते हुए फोन अपने हसबैंड को थमा दिया. तब पता चला कि नंबर गलत था. फिर राजाबाबू से मेरा सम्पर्क टूट गया. एक बार चेन्नै से उसका फोन आया था. वह किसी मैगजीन में था. फिर कुछ दिन पहले किसी ने बताया कि राजाबाबू नहीं रहे. फिर कल किसी ने बताया कि नहीं राजा बाबू तो अलीगढ़ में हैं. उन्होंने फोन नंबर देने का वादा किया है. मैं खुश हूं नंबर भले ही न मिले लेकिन राजाबाबू अलीगढ़ में खुश रहें. राजाबाबू ऐसे थोड़े ही मरते हैं. लांग लिव राजाबाबू.