Tuesday, December 30, 2008

रात को शोर मचाता कुचकुचवा

बचपन में गौरय्या तोते मैना कठफोड़वा और न जाने कितने पक्षी सुबह होते ही शोर मचाने लगते थे। अब उतना शोर नही होता। रात में देर तक जागना पड़ता है तो सुबह नीद भी देर से खुलती है । बचेखुचे पक्षी बोलके जा चुके होते हैं । एक या दो कौए भी नहीं दीखते । सामने दिख जाते हैं फाख्ता । दिन भर टेरते रहते हैं न जाने क्यूँ। हाँ आधी रात के बाद कुचकुच्वे ज़रूर शोर मचाते हैं । कुचकुचवा का नाम नहीं सुना है! अरे वही छोटे उल्लू । न जाने क्यूँ दिन में फाख्ता की टेर और रात को कुचकुच्वे का शोर सुकून देता है। लगता है कोई बात कर रहा है। कुछ कहना चाहता है। सुना है अब कुचकुच्वे भी कम हो रहें हैं। अब घर के आगे बगीचे नहीं होते । घर के अन्दर और बाहर पक्के फर्श और टाइल होती हैं। रिटायरमेंट के बाद अब लोग बगीचोमे कम जा पाते हैं । वे घर में बिछाई मोह माया की टाइल्स पर फिसल कर बाकी ज़िन्दगी बिस्तर पर ही काट देते हैं। जो ईमानदारी के पैसे से घर बनवाते उनके घरों में टाइल्स कम होती हैं और आगे छोटा सा बगीचा भी होता है। उन्हें कौवे, कुच्कुच्वे, कोयल से कम अच्छे नहीं लगते ।