Friday, August 07, 2009

बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय

तेजी से बदलती सोसायटी के अनुसार फमिली का साइज और स्ट्रक्चर भी बदलता रहता है. ज्वाइंट फैमिली और ज्यादा सदस्यों वाले परिवार की जगह अब न्यक्लियर फैमिली ने ले लिया है. कम से कम शहरों में तो यही स्थिति है. पिछले दिनों फैमिली डे मनाया गया. ज्वाइंट और स्मॉल दोनों तरह की फैमिलीज से बात करने पर ये बाते सामने आईं कि दोनों तरह के परिवारों के एडवांटेंज और डिसएडवांटेज हैं. पचास मेंबर्स वाले परिवार भी सुकून से रह रहे हैं और तीन-चार मेंबर्स वाली फैमिलीज भी सुख-चैन खो बैठती हैं. ये तो सदस्यों पर डिपेंड करता है कि वे परिवार को हेवेन बनाए या हेल. हर सख्श के सक्सेस के पीछे उसकी फैमिली का भी बड़ा कंट्रीब्यूशन होता है. ये कंट्रीब्यूशन हर स्टेज पर होता है. बचपन से लेकर ओल्ड एज तक. इस कंट्रीब्यूशन में महिलाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है. कभी मां के रूप में तो कभी पत्नी के रूप में दरअसल फैमिली ही वो स्कूल है जहां संस्कारों की नीव पड़ती है. परिवारों में हम जो कुछ भी सीखते हैं उसे अगली जेनरेशन को ट्रांसफर करते हैं. कहते हैं ना 'ऐज यू सो, सो विल यू रीपÓ यानी जैसा रोपोगे वैसा ही काटोगे. बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय. यही बात फैमिली पर लागू होती है. अगर फैमिली में कुछ गड़बड़ है तो उसका दोष सिर्फ हसबैंड या वाइफ पर नहीं मढ़ा जा सकता. दोनों बराबर के जिम्मेदार होते हैं. अक्सर तिल को ताड़ बनाने में हमारा ईगो आग में घी का काम करता है और छोटे छोटे मामले फैमिली कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं.